Sunday, October 7, 2007

गजेन्द्र मोक्षन

हे गोविन्द् हे गोपाल् हे गोविन्द् राखो शरन्
अब् तो जीवन् हारे
नीर् पिवन् हेत गयो सिन्दु के किनारे
सिन्धु बीच् बसत् ग्राह चरण् धरि पचारे
चर् प्रहर् युद्ध् भयो ले गयो मज् धरे
नाक पार् डुब् न लागे कृष्ण को पुकारे
द्वरका से चले गोपल् गरुड के बिचारे
चक्र से ग्रहो को मारि ग्रजरज को युद्धारे
सूर् कहे श्याम् सुनो शरणे तोहारे
अब्की बार् पार् चले नन्द् के दुलारे

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